Tuesday, November 10, 2015

The current state and direction of media

____जनसंचार माध्यमों की वर्तमान दशा एवं दिशा
____                                                                      -जगदीश प्रसाद सिन्हा 'दयानिधि
                                                                                                               सम्पादक पाटलिपुत्र एक्सप्रेस
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               सृष्टि के आदि काल से ही मानव की तीन मूलभूत समस्या रही है, रोटी, आवास और वस्त्र! किन्तु जैसे-जैसे मानवता का विकास होता गया उनकी आवश्यकतायें बढ़ती गयी। आज के दौर में जिस व्यक्ति के पास सबसे अधिक सूचना अथवा जानकारी है वह सबसे अमीर व्यक्ति है। जनसंचार माध्यमों के विकासात्मक स्थिति से कमो-वेश सभी परिचित हैं। अस्तु उसकी विस्तृत चर्चा करना यहाँ समीचीन प्रतीत नहीं होता। फिर भी समाचार माध्यमों की वर्तमान दशा एवं दिशा पर व्यापक विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह वह सशक्त माध्यम है जिसने संपूर्ण भू-मंडल को एक विश्वग्राम के रूप में परिणत कर दिया है। जनसंचार के दो सबसे सशक्त आधार स्तम्भ हैं- पहला इलेक्ट्राॅनिक माध्यम दूसरा मुद्रित माध्यम। 

(1) इलेक्ट्राॅनिक माध्यम:- इलेक्ट्राॅनिक माध्यम मूलतः चार भागों में विभक्त हंै यथाः- दूरदर्शन, आकाशवाणी, सिनेमा, इन्टरनेट आदि। संचार क्रांति के सूत्रापात् का श्रेय इलेक्ट्राॅनिक समाचार माध्यमों को दिया जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी। 80 के दशक के अन्त में जब भारत में सेटैलाइट टीवी की शुरूआत हुई और विदेशी चैनलों का भारत में प्रसारण शुरू हुआ। तब से भारतीय सामाजिक विचारधारा में आमूल-चूल परिवर्तन परिलक्षित होने लगा है। स्टार टी0वी0, एम0टी0वी0, बी0टी0वी0, जी0टी0वी0 और दुनिया भर के सैकड़ों चैनलों ने पश्चिमी प्रभाव से भरपूर कार्यक्रमों द्वारा भारत के संपूर्ण सामाजिक परिदृश्य को बदल डाला है। शुरूआती दौर में 80 के दशक में दो बड़े लम्बे धारावाहिक दूरदर्शन से प्रसारित हुए थे- ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’! ये धारावाहिक भारतीय सभ्यता और संस्कृति की गंध समेटे लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित किए थे, परन्तु सेटेलाईट चैनल्स के आगमन के बाद इन दोनों धारावाहिकों का पुनप्र्रसारण हुआ तो कहीं चर्चा तक नहीं हुयी। इसका प्रमुख कारण था तत्कालिन एवं वर्तमान परिदृश्य में दर्शकों की विचारधारा में आया बदलाव। वहीं ‘स्वाभिमान’, शांति, तारा, क्योंकि सास भी कभी बहू थी, कलश, कहानी घर-घर की, संस्कृति, कहीं किसी रोज, कसम, कन्यादान, हसरतें जैसी धारावाहिक दर्शकों द्वारा पसन्द किया गया। जबकि कभी सुपरहीट रहे ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे धारावाहिक दूसरी बार शुरूआत में ही खारिज कर दिया गया। यह समाज की बदलती विचारधारा का एक जीवन्त उदाहरण है। एक सबसे यक्ष प्रश्न जो उभर कर सामने आया है वह समाज में खासकर मध्यवर्गीय समाज की विचारधारा में, महिलाओं की सोंच में आया परिवर्तन है। ‘स्वाभिमान, शांति, हसरतें, तारा, औरत, कलश’ जैसे सैकड़ों धारावाहिकों ने उनकी सोच में महत्वपूर्ण बदलाव ला दिया। टेलीविजन का सबसे बड़ा दर्शकवर्ग महिलाओं का है। मनोरंजन बेचने वाले लोंगों ने इस अहम मुद्दे को पहचाना और महिलाओं का एक नया रूप अपने धारावाहिकों में प्रस्तुत किया जिसका मध्यम वर्ग की महिलाओं पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। आर्थिक व मानसिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं का जो रूप आज हमारे समाज में देखने में आ रहा है वह इन धारावाहिकों की ही देन है। 

इसका व्यापक प्रभाव बच्चों की सोंच पर भी पड़ा है। 21वीं सदी की दहलीज पर जन्म लेने वाले इन बच्चों में गजब की समझ देखी जा रही है। अपने आप में सिमटे बच्चों का जमाना अब लद चुका है। अब जमाना है तेज तर्रार बच्चों का जो हर तरह की जानकारी से लैस हो तथा किसी भी प्रकार की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो। सूचना क्रांति के इस दौर के बच्चे भलि-भाँति अपने लक्ष्य को समझते हैं तथा वे पूरी तरह जागरूक हैं और जानते हैं कि उन्हें क्या चाहिए और उसे कैसे हासिल किया जा सकता है।

भारतीय जीवन-शैली पर सिनेमा ने भी जबरदस्त प्रभाव डाला है। फिल्मों ने भी आम आदमी की रुचियों और पसन्द-नापसन्द को काफी हद तक बदल डाला है। जहाँ 70 के दशक के पूर्व साफ-सुथरी चरित्र निर्माण की सामाजिक फिल्में पसन्द की जाती थी वही दर्शक उसके बाद के दशक में अचानक मारधाड़, हिंसा और सेक्स की फिल्मों को पसन्द करने लगे। कालान्तर में दर्शक उन फिल्मों से उब गए और पुनः वे पारिवारिक फिल्मों की ओर वापस हो गए। इसके समानान्तर यथार्थवादी सिनेमा का एक दौर भी चला जो आज एक नए रूप में हमारे सामने है। इस प्रकार सिनेमा ने लगातार अपना रंग बदला और दर्शकों को प्रभावित किया। हाँ, एक सबसे अहम बात यह जरूर रही कि फिल्म कभी दर्शकों की पसन्द से बदला तो कभी दर्शक भी इसके हिसाब से अपनी पसन्द को बदले। लेकिन यथार्थ तो यह है कि शुरूआती दौर के सिनेमा और आज के सिनेमा में आसमान-जमीन का अन्तर है क्योंकि तत्कालीन समाज और आधुनिक समाज में बहुत अन्तर है। जून, 2001 में प्रदर्शित फिल्म ‘गदर’ और ‘लगान’ इसके उदाहरण हैं। 

समासतः यदि विचार किया जाए तो समाज पर सबसे अधिक प्रभाव दूरदर्शन के विविध चैनलों का पड़ा है। पिछले एक दशक में तो इन इलेक्ट्राॅनिक चैनलों ने समाज का लगभग संपूर्ण ढांचा ही बदल कर रख दिया है। 

जनसंचार माध्यमों का सबसे उन्नत और परिष्कृत रूप उभर कर इन्टरनेट के रूप में हमारे सामने है। इन्टरनेट आज प्रत्येक व्यक्ति को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। इसका मुख्य कारण है व्यक्ति को सूचना हासिल करने की भूख। ‘आज का मीडिया’- शंभुनाथ द्वारा लिखित संपादकीय अंश यहाँ उल्लेखित करना समीचीन प्रतीत होता है- ‘‘आज इंटरनेट ने आदमी की जीवन शैली को बदल दिया है। वह मध्यवर्गीय घरों में घुस चुका है। उच्च मध्यमवर्गीय पिता से उसके जवान होते बेटे-बेटी इंटरनेट की मांग करने लगे हैं। बेटे-बेटी इंटरनेट के जरिए अपने दोस्तों से गप्पें लड़ाना चाहते है, माँ कहती है, बहन-भी है? इंटरनेट पर बैठा बेटा कहता है- ‘बहन में क्या रखा है’। माँ पूछेगी- खेल के मैदान नहीं जाओगे? बेटा कहेगा, ‘‘इंटरनेट ही मेरा खेल का मैदान है। मेरा देश, मेरा जनतंत्र और मेरा बाजार है। इंटरनेट नई सभ्यता के कृष्ण का विराट विश्व रूप है- सबकुछ एक में ;आल इन वन।’’

निश्चय ही इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों के प्रादुर्भाव से जनमानस की सोंच, कार्यशैली, विकासात्मक गतिविधियाँ सभी बदल गयी है। यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सूचना क्रांति के इस दौर में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने पूरे विश्व की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है।
(2) मुद्रित माध्यम (प्रिंट मीडिया):- प्रिंट मीडिया जनसंचार माध्यमों का सबसे अहम और मूल स्रोत है। भले ही इलेक्ट्राॅनिक माध्यमो ने तेजी से सूचना क्रांति को फैलाया है किन्तु उनमें स्थिरता नहीं है। उनके प्रभाव में आने के बाद मानव की उत्सुकता, सूचना एकत्र करने की जीज्ञासा और अधिक हो जाती है जिसकी प्रतिपूर्ति इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों से नहीं हो पाती। सूचना क्रांति के परम्परागत माध्यमों में प्रिंट मीडिया का स्थान मात्र नहीं आता बल्कि अत्याधुनिक यथार्थ जनसंचार माध्यमों का संपूर्ण स्रोत आज भी प्रिंट मीडिया पर ही निर्भर करता है। इन्हें चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः- (क) समाचार पत्र, (ख) पत्रिकाएं, (ग) वार्षिक प्रतिवेदन (घ) गृह पत्रिका, ब्रोशर्स, हैंड आउट्रस, फोल्डर्स एवं अन्य मुद्रित सामग्री;
‘प्रिंट मीडिया के उद्भव एवं विकास’ पर विस्तृत चर्चा करना यहाँ आवश्यक नहीं है। किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रिंट मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। वास्तव में जनसंचार माध्यम की श्रेणी में उन्हें रखा गया है जो नई सूचना प्राद्यौगिकी के विकास से विकसित हुआ है। इसे औद्योगिक क्रांति की देन कहा जाता है। मुद्रण तकनीक का आविष्कार और विकास, उपग््राहों का निर्माण, कम्प्यूटर का आविष्कार, इंटरनेट, ई-मेल, फोटोग्राफी तकनीक का आविष्कार और विकास आदि ऐसे मूल तथ्य हैं जिनसे होकर जनसंचार माध्यमों का विकास हुआ है। वास्तव में ये एक दूसरे के पूरक हैं। प्रिंट मीडिया से हमारा तात्पर्य प्रेस से है, जिसे हम मुद्रित जनसंचार माध्यम कहते हैं। इनमें समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें, पैम्फलेट्स आदि सभी शामिल हैं। मुद्रण तकनीक की शुरूआत कला के रूप में चीन में हुई। बौध धर्म का प्रचार ही इसका उद्देश्य था। सर्वप्रथम सन् 650 ई0 में भगवान बुद्ध का चित्र छापा गया तथा प्रथम मुद्रित पुस्तक ‘हरक सूत्र’ मानी जाती है। उस समय मुद्रण तकनीक प्रारम्भिक विकासात्मक दौर में था। मुद्रण ब्लाॅक के रूप में था। चीनी मिट्टी के टाइपों का आविष्कार सन् 1041 ई0 के आस-पास हुआ। सन् 1314 ई0 में लकड़ी के टाइप बनने लगे। चीन से ही इस कला का विस्तार हुआ और वहाँ से यह जापान तथा कोरिया पहुँचा। यूरोप पहुँचने पर इसका विस्तार स्वतंत्र और त्वरित रूप से हुआ। सन् 1440 से 1450 ई0 में गुटनबर्ग ने प्रत्येक वर्ण के लिए अलग टाइप का आविष्कार किया। फलस्वरूप सन् 1456 ई0 में 42 लाइनों वाली पहली बाइबल छापी जिसे यूरोप की प्रथम मुद्रित पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
भारत में सन् 1556 ई0 में गोवा में पहला प्रेस स्थापित हुआ जहाँ से पहली पुस्तक ‘दौक्त्रीना क्रिस्तौआ’ सन् 1557 ई0 में छपी। सन् 1577 ई0 में जोन्सेस गेन्सालवेज नामक स्पेनिश ने सर्वप्रथम भारत में तमिल टाइप तैयार किया। नागरीलिपि में टाइप सबसे पहले यूरोप में तैयार किया गया। इस लिपि की पहली पुस्तक 1675 में छपी ‘चाइना इलस्ड्रटा’ मानी जाती है। 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के बाद मुद्रण कला में तेजी से विकास हुआ। आज हम जिस वैविध्यपूर्ण विकसित मुद्रण कला का दर्शन कर रहे हैं वह पिछले तीस-चालीस वर्षों में तेजी से हुई वैज्ञानिक प्रगति का नतीजा है। मुद्रण कला के विकास के साथ जनसंचार के सबसे प्रचलित माध्यम समाचार-पत्रों की शुरूआत हुयी। 139 ई0पू0 रोमन साम्राज्य में हस्तलिखित दो पृष्ठों की बुलेटिन रोम के पब्लिक स्क्वायर फोरम में बाँटे जाते थे जिसे ‘एक्टा ड्यूरना’ कहा जाता था। इसमें जनता और सीनेटर्स की रुचियों के अनुसार कार्यक्रमों की जानकारी रहती थी और इसकी दो सौ प्रतियाँ वितरित की जाती थी। इसे विश्व का प्रथम समाचार-पत्र होने का गौरव प्राप्त है, ऐसा विद्वानों का मत है। जेम्स और बेंजामिल फेंकलीन द्वारा सन् 1720 ई0 में छपा ‘न्यू इंग्लैण्ड’ को प्रथम आधुनिक समाचार पत्र के रूप में देखा जाता है। भारत में जैम्स आगस्टस हिक्की द्वारा 29 जनवरी, 1780 को प्रकाशित ‘बंगाल गजट’ या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर’ माना जाता है। दूसरा समाचार पत्र पीटर रीड और बी. मैसिक द्वारा स्थापित तथा 1780 में ही कलकत्ता से प्रकाशित ‘इण्डिया गजट’ को माना जाता है। भाषाई पत्रकारिता में 1818 ई. में ईसाई मिसनरियों द्वारा ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से श्रीरामपुर मिसन से प्रकाशित बंगला मासिक पत्र ‘दिग्दर्शन’ का स्थान आता है। इसके विरोध स्वरूप भारत में पत्रकारिता के जनक राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्महैनिकल मैगजीन’ का प्रकाशन शुरू किया। हिन्दी भाषा के पहले पत्र के रूप में पं0 युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ को माना जाता है। 30 मई, 1826 में प्रकाशित ‘उदंत मार्तण्ड’ से शुरू हुई हिन्दी और 1780 में प्रारम्भ हुई अंग्रेजी पत्रकारिता बहुत लम्बा सफर तय करती हुई आज आधुनिक युग में पहुँच गई है जहाँ हिन्दी-अँगरेजी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं में हजारों दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, छमाही और वार्षिक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। आज संपूर्ण भारत में लगभग 80 प्रतिशत साक्षर जनसंख्या इसका लाभ उठा रही है।
आजादी के बाद से भारत के समाचार माध्यमों की गुणवता दुनिया भर में सबसे उज्ज्वल माना जा रहा है। इतिहास साक्षी है कि वर्ष 1975 से 1977 के आपात्कालीन स्थिति को यदि छोड़ दिया जाए तो जिस तेजी से भारत में समाचार पत्रों ने आजादी के बाद गत अर्ध-शताब्दी में जो इतिहास रचा है, वह एशिया के कई राष्ट्रों के लिए ईष्र्या का कारण हो सकती है, क्योंकि बीसवी सदी के अन्तिम 50 सालों में भारतीय प्रेस ने स्वतंत्र-हवा में सांस ली। हालांकि राजनीतिक दबाबों का भी इसे समय-समय पर सामना करना पड़ा किन्तु समाचार जगत ने इसका जम कर मुकाबला किया। भारतीय प्रेस की सबसे बड़ी समस्या यहाँ की साक्षरता, भाषागत विभिन्नता रही है। एक ओर जहाँ अमेरिका और फ्र्रांस जैसे विकसित राष्ट्रों में साक्षरता शत-प्रतिशत के करीब है और भाषाओं की इतनी विभिन्नता भी नहीं है, उनकी तुलना में भारतीय प्रेस में कई बाधाएँ उत्पन्न हुयी इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता। 70 के दशक के आस-पास साक्षरता 34 प्रतिशत थी तथा 1977 में 929 दैनिक पत्र प्रकाशित हो रहे थे जिनकी प्रसार संख्या एक करोड़ थी। इस प्रकार प्रति एक व्यक्ति के बीच मात्र 17 पाठक थे। बिहार की स्थिति और भी बदतर थी। यहाँ की साक्षरता प्रतिशत मात्र 24 प्रतिशत उस समय थी। फिर भी भारत जैसे सदियों की गुलामी का बोझ सहनेवाले देश ने अपने हौसले का परिचय दिया। हालाँकि अँगरेजी के समाचार-पत्रों में कोई खास बदलाव नहीं देखा जा रहा किन्तु गुजराती, मलयालम, बंगाली, मराठी, उर्दू, तमिल तथा हिन्दी आदि के अखबारों ने प्रसार के स्तर पर आजादी के बाद भारी वृद्धि दर्ज की है। हालांकि अंग्रेजी के अखबारों के भी प्रसार संख्या में वृद्धि हुई है फिर भी यह प्रारम्भिक दौर से बाहर नहीं निकल सका है। भारतीय प्रेस का चरित्र अवश्य बदला किन्तु अधिकांश प्रकाशन महानगरों तक ही सीमित रहे। कालान्तर में यातायात, संचार एवं साधनों के बढ़ने से परिस्थितियांे में बदलाब आया और समाचार-पत्रों का रूझान ग््राामीण पत्रकारिता की ओर बढ़ा फलस्वरूप ग््राामीण क्षेत्रों की कवरेज एवं उस क्षेत्र में प्रसार संख्या की बढ़ोत्तरी हुयी। 1980 में सोवियत रूस की नीति की ओर भारतीय राजनीति के झुकाव के कारण लगभग रूस की 50 पत्र-पत्रिकाओं की भारत में प्रसार संख्या सात लाख के आस पास थी। उसके बाद राजनैतिक दलों ने भी अपने-अपने अखबार निकाले। टाइम्स आॅफ इण्डिया, इण्डियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दू, अमृत बाजार पत्रिका, नवभारत टाइम्स एवं हिन्दुस्तान आदि कई अखबारों का दबदबा आज भी समाचार जगत पर बरकरार है। इनका प्रसार अन्य प्रदेशों में भी स्पष्ट दृष्टिगत होता है। 
इस क्षेत्र में कई समाचार एजंेसियों ने भी अपना हाथ बढ़ाया है उनमें पी0टी0आई0, एवं यू0एन0आई0, हिन्दुस्तान समाचार, समाचार भारती आदि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ एजेंसिया यथा हिन्दुस्तान समाचार एजेन्सी जैसी कई एजेंसिया आपातकाल की भेंट चढ़ गए। कालान्तर में पी0टी0आई0 ने भाषा और यू0एन0आई0 ने ‘यूनीवार्ता’ हिन्दी समाचार पत्रों के विकास को दृष्टिगत रखते हुए शुरू किया। समाचार-पत्रों, समाचार एजेन्सियों एवं अन्य क्षेत्रों में प्रिंट मीडिया के विकास के साथ-साथ जनसंचार माध्यमों की विधिवत शिक्षण-प्रशिक्षण देने का कार्य पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रारम्भ हो चुका है। अनेक विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग हैं। लगभग 70 से अधिक जनसंचार विभाग आज विश्वविद्यालयों में चल रहे हैं। इग्नू, कोटा खुला विश्व विद्यालय, माखन लाल चतुर्वेदी विश्व विद्यालय, नालन्दा खुला विश्वविद्यालय आदि ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहाँ दूरस्थ शिक्षा के अन्तर्गत पत्राचार माध्यम से स्नातक एवं ‘मास्टर आॅफ जर्नलिज्म एण्ड मास कम्युनिकेशन’ स्तर की शिक्षा प्रदान की जा रही है। इस प्रकार इन संस्थाओं द्वारा जनसंचार-प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जा रहा है।
समासतः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि जैसे-जैसे जनसंचार माध्यमों का विकास होता गया वैसे-वैसे उसका समाजिक जीवन-स्तर पर प्रभाव बढ़ता गया। ‘हमारा जीवन जनसंचार माध्यमों के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए जनसंचार माध्यमों का उपयोग होना चाहिए।’ इस क्षेत्र के विशेषज्ञ भी अब व्यवसायिक प्रचार के अंग बनते दिखायी दे रहे हैं। मीडिया के माध्यम से सत्ता तक पहुँचना और सत्ता के माध्यम से मीडिया पर कब्जा करना आजके पत्रकारों की प्रवृत्ति बनती जा रही है। वास्तविक मूल्य स्थापना के लक्ष्य से मीडिया कहीं न कहीं भटक अवश्य रही है। फलस्वरूप इसका जीवन-शैली पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। उपभोक्तावाद का प्रचार-प्रसार बहुत तेजी से हुआ है तथा कुछ विशेष जानने की इच्छा जागृत हुई है। इस क्षेत्र में इलेक्ट्राॅनिक और प्रिंट दोनों ही मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया है। एक ओर जहाँ इनके सतत प्रयत्नशीलता से विकास दर में वृद्धि हुयी है, जीवन स्तर ऊँचा उठा है वहीं नैतिक मूल्यों का हªास हुआ है तथा समाज का विघटन भी। दूसरे शब्दों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया कहीं न कहीं पाश्चात्य संस्कृति की नकल करते दिखायी दे रही है। खास कर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के इस हस्तक्षेप से तो कतई इन्कार नहीं किया जा सकता।

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